ऋषभ पाण्डेय   (रुस्तम)
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कभी कभी ऋषभ ही एकमात्र विकल्प बचता है,
जब थक जाता हूँ तेरी परछाईं से बात करते करते।
Joined 9 March 2017


कभी कभी ऋषभ ही एकमात्र विकल्प बचता है,
जब थक जाता हूँ तेरी परछाईं से बात करते करते।
Joined 9 March 2017

What have you done,
Amid this situation
You must run.

Creating the creation,
Abandoning society
Inside isolation.

Dealing with anxiety,
Like never before
Of this variety.

Illness at the door,
Knocking loud
Knocks some more.

Far from the crowd,
In solace of hills
Let's rest in shroud.

-



मैं देखता हूँ तुम्हें,
आज भी वहीं जहाँ तुम कभी नहीं थी।
देखते देखते थक जाता हूँ,
पलकें झपकती नहीं हैं
आँखें पथरा जाती हैं,
आँसू निर्झर बहते हैं मेरी आँखों के ओट से।

मैं सुनता हूँ तुम्हें,
वैसे ही जैसे तुमने मुझे अनसुना किया था।
सुनता हूँ तुम्हें मेरे कानों में आहिस्ते से कहते हुए,
वे तीन शब्द, जिनकी माया से दुनिया ग्रस्त है।
किन्तु मेरे होंठ खिलखिलाते हैं,
मुस्कान स्वतःस्फूत होती है।
फिर वही कर्कश और वही लांछन,
जैसे कि मैंने जानबूझ कर
अपनी नियति निर्धारित की हो।

मैं सोचता हूँ तुम्हें,
आज भी जैसे तुम भी सोचती होगी मुझे।
जब तुम देखती होगी मुझे,
अपने मन मस्तिष्क के दर्पण में।
कितनी बातें बाकी थीं
कितनी यादें बनानी थीं हमें,
जिसके सहारे ये जीवन पार हो जाता।
चला जाता किसी नदी के मुहाने तक
विलीन हो जाता तुममें
और समय ठहर जाता सदा के लिए।

-



कभी कभी किसी से कुछ बातें होती हैं,
वो सिर्फ एक रात की मुलाक़ातें होती हैं।

मिल जाती है कोई दिलरुबा उसी रात में,
वर्ना ये सारी बातें अनकही सौगातें होती हैं।

मेरे दिल में वो धड़कती रहती है हमेशा,
जिसके लिए मेरी सुब्ह और रातें होती हैं।

जब कभी याद आती है वो तन्हाई में,
तब जाके यादों की बरसातें होती हैं।

'रुस्तम' की दिल्लगी ही ऐसी कुछ है यारों,
जैसे सूखे दरख़्तों की हयातें होती हैं।

-



कल वो आये तो बातें उससे हज़ार करूँ,
आगे जाऊं कहाँ क्यों न उसका इंतजार करूँ।

जब वो आये चांदनी से छन के जमीं पे,
सुब्ह की तजल्ली शबनम पर निसार करूँ।

वो अगर आया नहीं कल भी तो क्या होगा,
अब उस पर नहीं तो किस पर एतबार करूँ?

वो मेरा रहनुमा बने तो मंजिल मिल जाये,
बस यही सोच कर ख़ुदाई बार बार करूँ?

दौर-ए-ग़फ़लत में अब मर रहा है इंसान,
क्यों मन मार के खुद को बेज़ार करूँ...?

-



मैं कब तक मिलता रहूंगा खुद मुझसे ही,
हर रात के चौथे पहर से लेकर
मुझे दुबारा नींद आने तक
और फिर स्वप्न में भी।

किसी मुन्तज़िर की तरह,
जो तलाश रहा हो खुद को
खुद की दुनिया में
खुद के बनाये हुए पात्रों के बीच,
पता नहीं कबसे।

-



मैं चला जा रहा हूँ किस डगर मुझसे मत पूछो,
कब तक चलेगा मेरा ये सफ़र मुझसे मत पूछो।

मेरे हिज़्र से मेरा दामन छूट गया है या नहीं,
ये सवाल उससे पूछो मगर मुझसे मत पूछो।

[अनुशीर्षक में जारी...]

-



एक नाव लाती है तुम्हें इस शहर की तरफ,
एक शाम ले जाती है मुझे मेरे घर की तरफ।

यही सोचता हूँ कि मैं वहाँ हूँ भी या नहीं,
मैं उड़ा जा रहा हूँ किधर की तरफ?

मैं मुशरिक हूँ ये किसने तय किया होगा,
किसका ध्यान गया होगा इस ख़बर की तरफ।

शाख से पत्ते झड़ते हैं शायद अपनी ही मर्ज़ी से,
लौट आते हैं कुछ वक़्त बाद शजर की तरफ।

सारे ज़ुर्म अंधेरे में करती है दुनिया 'रुस्तम',
और शब-ओ-रोज़ देखती है सहर की तरफ।

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30 SEP 2018 AT 23:33

ख़ाक हुआ मैं चिंगारी भी आग लगा सकती नहीं,
ये क्या हुआ कि ज़िंदगी अब मौत से डरती नहीं।

मर मर के भी कैसे जिंदा रह गया किरदार मेरा,
ये मेरी मौत ही है जो मुझमें कभी मरती नहीं।

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28 SEP 2018 AT 13:20

तजल्ली मेरे शख़्सियत की कुछ रोशनाई हुई,
सभी लोग कहते हैं ख़ुदा से मेरी बेवफ़ाई हुई।

वो इल्म भी क्या जो तालीम का मोहताज हो,
वो तालीम ही क्या जिससे मजहबी लड़ाई हुई।

एक भी सबूत नहीं मिला हिज़्र का दिल में मेरे,
मेरे जज़्बातों से मेरी इस कदर आशनाई हुई।

जम्हूरियत महज़ एक तमाशबीन बन चुकी है,
सियासत से जबसे अच्छे दिनों की विदाई हुई।

मुफलिसी जेब में थी अब रूह में भी रहती है,
खजाने से पुराने सिक्कों की जबसे सफ़ाई हुई।

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26 SEP 2018 AT 22:13

जलती हुई लाश और उमंग,
चीख़ती बहुत है।
शोर होता भी है और नहीं भी,
कोलाहल और शांति साथ साथ चलते हैं।

[अनुशीर्षक में जारी...]

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