ललाट पे लगा सूरज की बिंदी, बालों में बांधे उसने ज्वार,
वो तेज़ रूपी, वो मोह माया, उसके तो है रूप हज़ार।
वो ही मानस की विधाता है, वो ही पृथ्वी की सृजनकार,
वो ही माटी में भरे बीज, वो ही ऋतुओं की राग मल्हार।
वो सहती पीड़ा भी कठिन, वो रौद्र रूप महाकाली है,
वो जलधि सी शांत स्वरूपा, वो ही ज्वाला रूप भवानी है।।
वो कहती नहीं, पर विस्मित है, बस आज के जय-जयकारों से,
वो स्वतंत्र है, पर सीमित है, इन नारीवादी अधिकारों से!
वो मौन नहीं, वो गौण नहीं, वो हर ललकार को रौंद रही,
वो वसुधा की माटी सरीख, वो अंदर अंदर कौंध रही।।
वो खुद लावा की लाली ले, बने जीवन की सृजनहार,
वो स्त्री जाति ही है मानव, वो ही समाज़ का है सृंगार।।
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