हम अकेले पड़ रहे थे रहबरों के बावजूद,
ज्यूँ समन्दर है अकेला साहिलों के बावजूद!
एक पिंजरे का परिंदों पर असर इतना हुआ,
उड़ नहीं पाते हैं अब वो हौसलों के बावजूद!
कुछ लकड़हारें चले आये थें जंगल की तरफ़,
हम शजर डटकर खड़े थें आहटों के बावजूद!
शाइरी में नाम है सो याद करते है हमें,
दोस्त वो जो जा रहे थे मिन्नतों के बावजूद!
धूप दी, पानी दिया, एहसास का साया भी पर,
पुरसुखन ना बन सकें इन ज़ावियों के बावजूद!
शायरों ने घर बनाया नाम था इंसानियत,
आज तक मौजूद है जो ज़लज़लों के बावजूद!
ऐ नई नस्लों! वो चाहें नफ़रतें बोते रहें,
इश्क़ फैलाना मगर तुम नफ़रतों के बावजूद!
आदमी ने बांट डालें ज़र, ज़मीं, हथियार सब,
"शम्स" लेकिन हर तरफ़ था सरहदों के बावजूद!
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