Rahul Barthwal   (RB Poetry)
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Joined 11 April 2017


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Joined 11 April 2017
1 JUL 2020 AT 6:46

हिजरत के नए दर्द से मारे गए थे हम,
जब वादी-ए-जन्नत से निकाले गए थे हम!

ये कौन हमें बेसबब आवाज़ दे रहा,
वरना तो ज़रूरत में पुकारे गए थे हम!

हम थे किसी जंगल में करीने से उगे फूल,
बेवक़्त हवाओं में उखाड़े गए थे हम!

ना थी किसी अखबार में हिजरत की कहानी,
इस तौर सरेआम भुलाए गए थे हम!

हमको किसी सूली टंगा वो शख़्स मिला था,
जिस शख़्स के छूने से सँवारे गए थे हम!

हम थे वो उदास ओस जो पत्तों प गिरी थी,
हम ख़ुद न गिरे थे हाँ गिराए गए थे हम!

हम भी थे परिन्दें तिरे जंगल में ऐ वनदेव!
फिर क्यूँ तिरे जंगल में डराए गए थे हम?

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26 NOV 2018 AT 7:56

मुझको वो नाटक भी जीना पड़ता है,
जिसमें सब किरदार ही मरने लगते है!

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19 DEC 2020 AT 17:08

मैं खुलके कुछ नहीं कहता किसी से,
न जाने क्या छिपाना चाहता हूँ!

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23 NOV 2020 AT 1:13

कितने तन्हा होते होंगे,
बाहर से खुश दिखने वाले!

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18 NOV 2020 AT 10:52

हम अकेले पड़ रहे थे रहबरों के बावजूद,
ज्यूँ समन्दर है अकेला साहिलों के बावजूद!

एक पिंजरे का परिंदों पर असर इतना हुआ,
उड़ नहीं पाते हैं अब वो हौसलों के बावजूद!

कुछ लकड़हारें चले आये थें जंगल की तरफ़,
हम शजर डटकर खड़े थें आहटों के बावजूद!

शाइरी में नाम है सो याद करते है हमें,
दोस्त वो जो जा रहे थे मिन्नतों के बावजूद!

धूप दी, पानी दिया, एहसास का साया भी पर,
पुरसुखन ना बन सकें इन ज़ावियों के बावजूद!

शायरों ने घर बनाया नाम था इंसानियत,
आज तक मौजूद है जो ज़लज़लों के बावजूद!

ऐ नई नस्लों! वो चाहें नफ़रतें बोते रहें,
इश्क़ फैलाना मगर तुम नफ़रतों के बावजूद!

आदमी ने बांट डालें ज़र, ज़मीं, हथियार सब,
"शम्स" लेकिन हर तरफ़ था सरहदों के बावजूद!

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21 OCT 2020 AT 9:57

बदन के आखिरी हिस्से से मलबा छानकर मेरा,
तुझे जो शख़्स मिलता है उसे भगवान कर मेरा!

मैं सब कुछ भूल जाऊँ बस तुझे ही ध्यान में रखूँ,
कभी तू भी तो मौला इस क़दर नुक़सान कर मेरा!

करम मुझ पर हुआ तूने जो मुझको इक अलम बख़्शा,
अब इतनी सी अरज मरना भी कुछ आसान कर मेरा!

मैं छत की तह में उग आई किसी सीलन का पौधा हूँ,
तू किरचों से टपकती धूप है कुछ ध्यान कर मेरा!

मुझे रक्खा गया है चाक पर पहली दफ़ा मौला,
सो बनने का तरीक़ा भी ज़रा आसान कर मेरा!

तिरा छूना मिरे खातिर किसी तनख़्वाह जैसा है,
जबीं को चूमकर तू आज ये भुगतान कर मेरा!

जफ़ा की ख़र मिटाकर याँ मुहब्बत की फसल बो दे,
ये ग़ज़लों की ज़मीं को अम्न का बागान कर मेरा!

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15 OCT 2020 AT 14:25

एक मुस्सविर की आँखों का रंग संवरने लगता है,
जैसे ही इक भूला बिसरा चेहरा बनने लगता है!

कूज़ागर की आँखों से मिट्टी बहने लग जाती है,
और चक्के पर बैठा पुतला सपने बुनने लगता है!

डेढ़ बजे हर रात मुझे इतनी वहशत हो जाती है,
मीर ग़ज़ल में ढलकर मुझसे बातें करने लगता है!

ज्यों ही कमरे की दीवारें इक चेहरे को रोती है,
दीवारों की सीलन में इक अक्स उभरने लगता है!

टेबल लैंप के हर ज़र्रे की उम्मीदें बढ़ जाती है,
जैसे ही कागज़ पर पहला मिसरा बनने लगता है!

जब जब भी पटरी पर चलने वाले लौट नहीं पाते,
मेरी आँखों में सरवत का किस्सा चलने लगता है!

ना जाने इस दुनिया का कैसा अल्हड़ दस्तूर है 'शम्स',
जाने वाला अक्सर मीठी बातें करने लगता है!

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8 OCT 2020 AT 8:46

सबका साथ निभाने वाले,
अक्सर तन्हा रह जाते हैं!

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25 SEP 2020 AT 6:07

जिस्म खुला है बाहर बाहर रूह तो पैहम कैद में है,
चार दिवारें ही दुनिया है सारा आलम कैद में है!

बस्ती के सब बुत गायब है कोइ सदा-ए-कुन गाओ,
काबे में है तालाबंदी आब-ए-ज़मज़म कैद में है!

दुनिया वाले क्या जानेंगे मलमल की ये सच्चाई,
चमचम करते रेशों के नीचे इक रेशम कैद में है!

देख रहा है उड़ता पंछी पीछे छूटे पिंजरे में,
कल तक उसको कैद में रखने वाला आदम कैद में है!

ताजमहल बनवाने वाले वालिद की ये हालत है,
बेटे के हाथों में सब है, प्यारी बेगम कैद में है!

वो आँखों को पढ़ने वाला ऐसा है खुदगर्ज़ पिया,
जिसके दीदावर होकर भी हम सब बाहम कैद में है!

जिस्म के इक पिंजरे में बंद हैं हम पागल पंछी सारे,
ख़ुद ही ख़ुद से लड़ते हैं ये कैसी मुबहम कैद में है!

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16 SEP 2020 AT 16:13

मैंने इस ज़िन्दगी में इक यही ख़ता की है,
तेरी शर्तों पे मैं रिश्ता नहीं निभा पाया!

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