मैं ये सोच कर चला था घर से
कि दूर जाकर तुम्हें भूल जाऊंगा

मगर बातें तुम्हारी
जो उतरी थीं ज़हन में फूलों की तरह
अब उनके काँटे चुभने लगे हैं
बूंद-बूंद खून टपकता रहता है-
एक आतिशीं, सुर्ख लाल रंग
फैला है ज़हन पर मेरे

एक रात जो दी थी तोहफ़े में तुमने-
गर्म थी बहुत
अब पिघलने लगी है
और उसकी स्याही कुछ इस तरह लगी है चेहरे पर
कितनी भी धूप मलूँ
उतरती नहीं है

निशान अपने गर्म होंठों से
जो दिया था लबों पर मेरे
एक शरारा रह गया था-
होंठ काले पड़ गए हैं मेरे

ये कैसी होली खेली है तूने
कि रंग कितने भी उतारूँ मैं-
फैलते जाते हैं बदन में ज़हर की तरह

अब कितनी भी दूर जाऊँ मैं
आ जाओगे तुम सामने मेरे
कि ज़हर कुछ बाकी हैं तेरे
और मैं ज़िंदा हूँ

- Piyush Mishra