Omprakash Prasad   (ओम)
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Joined 19 May 2017


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Joined 19 May 2017
13 APR AT 18:34

सद्व्यवहार

मैं चाह कर भी उन पर रोष नहीं कर पाता
नहीं चिल्ला पाता उन पर
उनकी करतूतों पर
उनकी आदतों पर
वो अक्सर साधारण लेते हैं मुझे
मेरे इस "सद्व्यवहार" के कारण ही तो
वो नहीं करते मेरे वांछित कार्य को!!

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30 MAR AT 18:07

वर्षों बाद

आज वर्षों बाद
सफ़र पर निकला है पथिक
ट्रेन में हर शक्ल नया है,
नया वातावरण, नए अनुभव और
अब जैसे वह भी नया सा होता हुआ...

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30 MAR AT 10:02

एक पन्ना

उस दिन एक पन्ना
तेरे नाम का लिखा था
अब वह पन्ना उपन्यास है...

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30 MAR AT 9:51

उम्मीद

उम्मीद लगाए बैठे हैं
न जाने तुम्हारी ही तरह कितनी उम्मीदें...
उम्मीदों के इस सड़क पर बिछा हुआ है
इंतज़ार...

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26 JAN AT 22:23

मन‌ चंचल
इस औ' उस डाल
के बीच फंसा!

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12 JAN AT 0:57

//अधूरा प्यार//

कुछ प्यार अधूरा‌
होकर भी अधूरा नहीं होता
उनमें पूर्णता विद्यमान रहती है।

(पूरी कविता अनुशीर्षक में)

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10 JAN AT 23:16

//मां का सपना//

घर से लगभग चालीस किलोमीटर
दूर जाती है मां सुबह-सुबह
मज़दूरी के लिए कलकत्ते के
उस बड़े कारखाने में।
मां सुबह से शाम तक
पीसती है ख़ुद को उस बड़े कारखाने में
जिसकी चिमनी से निकलता है धुआं स्याह!

(पूरी कविता अनुशीर्षक में )

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20 NOV 2023 AT 19:11

//यात्रा//

यात्रा,
मानो ख़त्म होने का
नाम ही नहीं ले रही।
एक के बाद एक
यात्रा पर निकलते जा रहें हैं।
'मुक्तिबोध' के शब्दों में कहें तो-
"एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
मैं उन सब पर से गुज़रना चाहता हूँ,"
उड़ना, पटरियों पर दौड़ना और फ़िर लगातार...
ज़िन्दगी के प्लैटफॉर्म पर
गंतव्य की राह में बढ़ना!

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17 NOV 2023 AT 0:46

//मेरा बचपन//

खेल अनंत
वर्तमान ही सब
दोस्त ही दोस्त
आज यहाँ कल वहाँ
माँ परेशान
दौड़ती पीछे
भरी दुपहरी
भागा शैतान
खाए बिन सोया तो
माँ ने खिला दिया
नींद में ही खा लिया
स्कूल जाते कदम...
आह मेरा बचपन!

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11 NOV 2023 AT 5:50

वह उसके इंतज़ार में एक लंबी उम्र काट चुकी थी। वह बस उसी का इंतज़ार कर रही थी। हाँ, विकल्प उसके पास भी ख़ूब थे जैसे उसके प्रेमी के पास, लेकिन उसकी आत्मा को मंज़ूर नहीं था किसी दूसरे को अपना लेना। वह तो बस उसी से बेसुध प्यार करती थी। नहीं वह मीरा नहीं थी पर मीरा से कम भी नहीं थी! मैं सोचता हूँ कि कोई इतना त्याग कैसे कर लेता है, कैसे आत्मा को समझा या मनवा लेता है कि एकतरफ़ा प्रेम ही अंतिम सहारा बन जाता है जिसमें लीन व्यक्ति ख़ुद ही को युगल में परिवर्तित कर लेता है जैसे घनानंद आदि रीतिमुक्त कवियों ने किया। इस प्रेयसी की तरह उनका यह सोचना कि 'काश यहाँ तुम भी होते' निहायत ही पीड़ादायक हुआ करता है!

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