होते हो तुम हिज्र में मुंतशिर क्यों भला ..?
रम्ज़ है , कफ़स ए ताज़ियत ये, जाते न जाए
जिसको भेजते हो तुम, ख़ुद दूर खुशी से;
दुआ पढ़ा करते,करते तस्बीह ;
या खुदा वो आ जाये बस वापिस आये !
मोहब्बत में थी तुम, पता चला नहीं तुम्हे, कहती खुदाया ये ,कैसा कोह ए अलम,
उसने दिलाया यकीं, माना मुझे मेहवर ;
रही मैं बरहम ओ उसको, देती रही हाय !
तुर्बत पर उसकी जाने का हक़ नही तुमको अब, की उसने आखिर ख़्वाहिश,
मैं रुख़सत हूँ जहाँ से जब भी, वो आ न जाए कभी,
बाब कब्रिस्ताने, खातिर उसके, बंद किये जायें ;
मुग़ालता है तुम्हे, जो सोचा करते, नफऱत कर ही गया वो तुमसे आखिर जाते -जाते,
वो थक चुका था पैहम, मसाफ़त ए हिज्र करते, करते अश्क़ रेज़ी,
पुख़्ता कर गया बस, तुम कर न पाओ दीदार उसका
कहीं ऐसा न हो वो बाद उसके, झट उठ जाए ;
परिंदा नहीं मिला तुम्हें,बस अब हिकायत ये है !
पढ़ गया आखिरी दुआ,तुम्हारा जो भी ' वो' हो, जब भी आये जहाँ से आये
तग़ाफ़ुल न कर सको तुम ,
तुम पर अस्बाब अब तुम्हारे, कोई कभी सितम न ढाया जाए।
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