चंद एहसासों को समेंटे वो शाम आई
कुछ अल्फ़ाज़ों की गुज़ारिश करते हुए
चुपके से कानों में फुसफुसाती हुई
कहने लगी वो मुझसे
अब तो बयां करने दे खुद को
कितने अरसे से यूँ कैद कर रखा हैं
मानो मैं तेरा टुकड़ा ही नहीं
मैंने भी आज उसकी दरखास्त मान ही ली
ज़रा आजमाया तो जाए
कितना खुद को समझा पाती हैं
सोचा चलो देखे तो सही
क़ि कितनों को ये एहसास कराती हैं
कुछ डरे सहमे से...कुछ होंठों पे मुस्कान बिखेरे
इसे इजाज़त दे मैं दूर तलक बैठ गई
- © निधि's Bleeding Pen🖋️