26 MAR 2017 AT 20:29


अनकहे लफ्ज़

मैं कह रहा था, समा सुन रहा था ।।
क्या सुना उसने ? क्या बोला लम्हों ने ?
ये आवाज़ ज़रूरी थी, ये अलफ़ाज़ बेफिजूल थे ।।

क्यों पूछे वो काफी, जो बेहिसाब था वो बाकी ।
कहना भी जरुरी था, मगर होंठ सील दिये थे ।
उस बड़े शहर में, मेरे अलफ़ाज़ खो गए थे ।।

परिंदा वो आवारा, क़ैदी सिर्फ एहसासों का था ।
मैं बयां न कर सका, मंज़र जो मेरे जज़्बातों का था ।
ख़ामोशी सुनाई देती है, वो हमारे भ्र्म थे।
शहर वो बड़ा था, मगर श्रोता कम थे ।।


वो रुके जब मुझे सुनने को, तब हम निःशब्द थे ।
जो दब कर रह गए कहीं, वो मेरे अनकहे लफ्ज़ थे ।।

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