24 MAY 2017 AT 11:36

तलाश -

हर्ष को उस दिन बहुत तलाशा था मैंने।
बेतरतीब गलियों में, नदी के किनारों में,
भरे बाज़ारों में, बंद दीवारों में
लेकिन वह कहीं भी नहीं मिला था।

हार कर मैं घर आया तो देखा
वह छुप कर बैठा हुआ था इक कोने में।
उसकी आरामतलबी देख, मैं बौखला उठा
और अपना जूता फेक मारा उसे।
वो मुझे दुबारा कभी भी नहीं दिखा
रफूचक्कर हो गया वो बेशर्म नामुराद।

चलने में काफ़ी दिक्कत होती है आजकल।
लगता है उस दिन,
कुछ काँच के टुकड़े, गथ गए थे जूते में।

- हर्ष स्नेहांशु