Dr. Gulshan Kumar   (गुलशन)
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Joined 4 June 2017


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3 JUL 2021 AT 6:48

कुछ गाने , कुछ सड़के, कोई मुंडेर हमें पुराने रिश्तों की याद दिलाते है ।
मैं उनमें रोज़ ज़िन्दगी का एक स्वाद चखता हूँ ।
अक्सर इन जगहों पे मैं अकेला ही घूमता हूँ,
बेवजह ही मैं उन मुंडेरों पे बैठता हूँ ,
चेहरे पे यादों के ठंडे थपेड़े महसूस होते हैं ।
हाँ, इन निर्जीवों में सजीव होने का सुकूँ महसूस करता हूँ ।।

अकेला होकर भी कुछ अधूरी रह गयी बातों को दोतरफा ही पूरी करता हूँ,
चाय तो ठंडी ही पसंद है, पर वो ठंडी चाय भी देर से खत्म करता हूँ,
हर लम्हा प्रत्यक्ष होता प्रतीत होता है,
हाँ , वो चाय की टपरी से सटा मुंडेर, मुझे हद से ज़्यादा पसंद आता है ।

गाने सुनते वक़्त रास्ते के पत्थर पे टक्कर मारते हुए आगे बढ़ता हूँ,
बीच में कोई मुँह बोला मित्र अगर टोक दे की , " कैसे हो ? "
मन में सिर्फ मुस्कान आती है, और जुबान पे मुस्कान में घुला , " ठीक हूँ "
अचानक से वर्तमान महसूस होता है ।
पत्थर के साथ - साथ भटकते यादों के कारवाँ पे भी विराम लगता है ।।

चल लेता हूँ उस मुँह बोले मित्र के साथ उसी मुंडेर पे चाय पीने,
बातें तो करता हूँ, पर उनमें बेफिक्री की कमी होती है ।
इतने में, अचानक से कोई बोल रहा होता है, " तुम्हारी चाय ठंडी हो रही है । "
मैं भी कितने ही दिनों के बाद मुस्कुरा कर बोल रहा होता हूँ, " मुझे चाय ठंडी ही पसंद है ! "

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27 JUN 2021 AT 23:50



सबसे ज़्यादा खुशी भी उन्हीं से मिलती है, साथ ही सबसे ज़्यादा दुःख भी ।
पर मैं शायद सिर्फ बराबर का दुःख ही परोसता हूँ उन्हें,
एक फितरत होती है इंसानो की, जो कम ही समझ आती है ;
शायद मैं ये समझता हूँ, पर उन्हें कभी ये समझाता नहीं ;
खुश हो जाता हूँ उनकी खुशियों का कारण बनकर,
पर उन खुशियों का कारण मैं हूँ, ये मैं अक्सर ही उनसे छुपा लेता हूँ !


पूरी कविता कैप्शन में पढ़ें, धन्यवाद..!

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26 MAY 2021 AT 3:55

वो " कौन होते हैं ?
क्या " वो ",सबको तुम्हारे समान, एक बराबर ही मिलते हैं ?
क्या " वो ", रिश्तों के बाज़ार में बिकते हैं ?
या फिर " वो " , तुम्हारी कोशिशों से बनते हैं ?


" वो ", तुम्हारे पीछे छूटने पे ; अपनी रफ़्तार धीमी करते हैं !
" वो ", मित्र होते हैं ; जो बस, मिल जाते हैं !!



पूरी कविता कैप्शन में पढ़ें, धन्यवाद !

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13 APR 2021 AT 15:29


कितना अच्छा हो की रिस्तों में बराबरी हो,
साथ मिलकर बैठें और मिलकर गाँठे खोले ।
जब एक का धैर्य जवाब दे तो दूसरा बोले, " लाओ अब मैं करता हूँ " ।
आखिर साथ मिलकर करना सबसे अच्छा क्यूँ है ?
शायद ये " साथ " मन में उठ रहे सवालों को स्थिरता देता है ।।

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12 OCT 2020 AT 4:06

एक अलसाया मन, और थका शरीर ।
ख़र्च होते लम्हें और उन लम्हों में खाली होता इंसान ।
कुछ नाराज़गी, कुछ नज़रन्दाज़गी,
फिर ढ़ेर सारा अफ़सोस ।
न जाने कितने ही काश के कयास,
पीछे लौटकर सब कुछ ठीक से करने की कसक ।
समझ को कोसना और फिर दिल को दिलासा ।
कुछ नयापन, या सबों के साथ एक जैसा ही ?
या सारे अपने एक जैसे और सबों की उलझन एक जैसी ?


कुछ अधभरे पन्नों की खोज, और उन्हें पूरा करने की जल्दबाजी ;
शब्दों की कमी और उससे पनपती झुँझलाहट ।
अतीत की ताकाझांकी और भविष्य का उतावलापन ;
कुछ अज़ीज़ बचाने के लिए हरेक बेज़ारी का मंज़ूर होना,
और इसपे वर्तमान का बार-बार चिढ़ा के जाना ;
वो अतीत, वर्तमान और भविष्य का एक साथ धमकना,
साथ ही वक़्त की कोख़ में पलती किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था ।
सब कुछ समूचा होते हुए भी बंजारेपन का एहसास।
खुद के फैसलों की दोतरफी वकालत,
और फिर कभी ना बदल पाने वाली इंसानी फ़ितरातों पे ऐतराज़ ।।

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8 MAR 2020 AT 16:49

Take a pause, Rehabilitation Centre can be a compliment also..!!

Happy Women's Day..!

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6 FEB 2020 AT 20:40

** विरासत **

जब पंक्ति का एक सिरा कमजोर पड़कर लड़खड़ाने लगता है,
तब आत्मनिर्भरता अन्योन्याश्रय में बदलने लगती है;
उम्र , जजबात औऱ अनुभव के ऐंठन से बनी बातों की डोर धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ने लगती है;
तब खामोशियाँ यूँ ही घबराकर न जाने उस डोर में जगह-जगह कितने ही गाँठें डाल देती है,
और अंत में वो एक ही पंक्ति कितने टुकड़ों में बंट जाती है।।


वक्ता उहापोह में घिरकर, अधूरी बातों को अधूरा ही छोड़ देता है,
ज़िम्मेदारी, अपनापन और हक थोड़े और करीब से महसूस होते हैं।
सब कुछ समझ पाने के अपेक्षा की जाती है,
धैर्य, श्रोता की परीक्षा लेने लगता है,
तब मुस्कुराहट अंतर की झिझक को गले लगाने आगे बढ़ जाती है।


तन कमज़ोर होता है और मन थकता है,
तब सारा कुछ आसान करके देने का खुद से किया वादा कमज़ोर पड़ने लगता है,
" आगे बढ़ो, मैं संभाल लूंगा " ; शब्द अब भी यही होते हैं, कंधे पर हाथ भी होता है,
पर जब उस पंक्ति का विस्तार होता है, तो दूसरा सिरा लड़खड़ा जाता है।


काफी कम समय और नपे तुले शब्दों में लंबा संवाद होता है,
न चाहते हुए भी मौन पढ़ने की कला का सीखना-सिखाना होता है,
सिर्फ कर्तव्यों का प्रत्यायोजन या एक खूबसूरत उलझन ?
एक भार ! या छोटे-छोटे टुकड़ों में पिता के द्वारा पुत्र को सौंपी गई एक लाज़वाब विरासत?

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27 OCT 2019 AT 0:10



फिलहाल दो खाली दवात और सामने समयनिष्ठ धूप से एक दौड़,
पगडंडियों से होकर आशाओं के हरे मैदान में उससे पहले पहुँचन पानें की,
दवात में इतनी स्याही तो चाहिये ही, ताकि ख्वाहिशों के पंख का सिरा उसमे डूब जाए;
समझता हूँ कि, हर समझ को समझ पाने की समझ तो कितनों में ही नहीं,
स्याही में सोच के 'रंग'और 'गाढ़ेपन' को मिलाने के लिए पूरा दिन भी कम तो नहीं ।।

इंसान ही तो हैं, शुरुआत में जज़्बात का कोलाहल मौन को भंग करने में अपना पूरा ज़ोर लगा देगा,
चित्त में छूती कोई पंक्ति कभी काफी मीठी होगी तो कभी काफी कड़वी,
पूरी पंक्ति ही उड़ेल देनें का जी करेगा,
एक दूसरा वरण, इस पंक्ति को पी जाना भी तो है;
रंगों से तो बैर नहीं, पर उस गाढ़ेपन का क्या ?
मौन की अग्नि में तपकर सोच और भी बलवान हो जाएगा।
बातें मीठी होकर चाशनी बन जाये, ये भी तो गवारा नहीं।।



-गुलशन
(23/10/2019)


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17 SEP 2019 AT 16:12

नफ़रत करनें की कोई ढंग की वजह दे जाओ,
छोटी-मोटी गलतियाँ तो वैसे ही माफ कर देता हूँ ।।

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30 AUG 2019 AT 3:35

" आओ झगड़ते हैं...! "


झगड़ते वक़्त, बात मैं उस प्यार की करूँगा जो एक बाप अपने बड़े बेटे को देता है,

रूखा तो ज़रूर है, पर झूठा नहीं, मुश्किलों में सामने से ना आकर भी छुपकर चीज़ें आसान करना कम तो नहीं,

बातों में मैं तुम्हारे उस दोस्त/उन दोस्तों के बारे में भी जानने की कोशिश करूँगा जो तुम्हें माँ समान ममता की आँचल से तेरा सर ढक कर तुम्हें मुश्किलों के कड़ी धूप से बचाता है,

तो फिर क्या माँ गलत है, जो हमें हमेशा मुश्किल में घिर जाने के पहले ही बचा लेती है ?

तो फिर कौन सा प्यार बड़ा, माँ या पिता , तुम या मैं ?

ज़िद्द बराबरी की भी नहीं है तुमसे।।

(25/08/2019)

# पूरी कविता कैप्शन में पढ़ें, धन्यवाद..!

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