मुद्दतों बाद तुझे देखा, नज़रों को मिलाया न गया ।
आईना था मेरी ख़ुदी का, अक्स अपना छुपाया न गया ।
जा साहिलों से मिले 'जैसे' तेरे "रंज" मेरे उन्मादों के ।
साक़ी से फिर 'वैसा' जाम छलकाया न गया ।
ताज़गी है तेरे आने की, या फिर आब-ए-हयात है,
जो तेरे मुख़्तसर आंसुओं को बुलाया न गया ।
तब्बसुम सा महकाया तूने जहाँ इस "काज़ी" का,
के दीदारों के इंतज़ार में फिर चिराग बुझाया न गया ।
- CalmKazi