जगे हज़ारों लफ्ज़,
हर रात, दिल के अंधेरों से।
अब क्या बयां करूँ...
क्यों, किसके लिए और कितनी बार?
वैसे तो सागर सा भरा रहता था दिल,
यादों, उम्मीदों और इरादों से,
पर समझ की सूरज और तज़ुर्बों के धूप से
सारा सागर सुख चुका!
बस बिखरे पड़ें हैं कुछ रेत गीले,
आंखों से निकली, आती जाती भावनाओं की।
और उसी रेत से जगे
हज़ारों लफ्ज़, हर रात,
दिल के अंधेरों से।
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