भींच के अपनी छाती में उसको,
थाम रखा है आस में जिसको,
आज सरोवर बह जाने दो,
और रुको ना, बह जाने दो.
कब से सूखी धरा ये देखो,
उस चितचोर की राह तके है,
ऋतु वसंत के जाने पर भी,
वो ना आया, बस परलय है,
बाँधों को अब गिर जाने दो,
और रुको ना, बह जाने दो.
प्यास बुझाने को तेरी,
शायद काफी था सावन भी,
पर दंभ हुआ ग़र उसे,
की उस बिन होगी ना पैदावारी,
तो तोड़ दो भ्रम उस निर्लज्ज का,
लहरों में तपिश खो जाने दो,
और रुको ना, बह जाने दो.
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